Image description
Image description

कारखाने में बनती त्वचा

Image description

शरीर पर हुए घाव पर फैक्ट्री में बनी कृत्रिम त्वचा का एक टुकड़ा, जो इंसानी ऊतकों से ही विकसित किया गया हो. कुछ ही महीनों में त्वचा का अपने आप विकसित हो जाना. साइंस फिक्शन सी लगने वाली बात जल्द ही सच्चाई होगी.

त्वचा मनुष्य के शरीर का सबसे बड़ा अवयव है. यह दो वर्ग मीटर का इलाका ढकती है और शरीर के वजन का 16 फीसदी हिस्सा होती है. यह अपने आप में एक बहुत ही जटिल प्रणाली है. जिसमें इलास्टिक फाइबर होते हैं. तापमान को तुरंत महसूस करने वाले संवेदक होते हैं. इतना ही नहीं शिरायें, लसिका तंत्र, महसूस करने की क्षमता, प्रतिरोधक कोशिकाएं, पसीना, बाल और वसा के ऊतक सब त्वचा से संबंधित हैं. त्वचा शरीर में बैक्टीरिया को घुसने से रोकती है और शरीर की अति ठंड और गर्मी से रक्षा करती है. इतना ही नहीं त्वचा के कारण ही हम भावनाएं महसूस कर पाते हैं.

कड़ी मेहनत                                     

अभी तक प्रयोगशाला में मानवीय त्वचा बना सकने की संभावनाएं काफी सीमित थी. इसी की कमी फ्रॉनहोफर इंस्टीट्यूट में टिशू इंजीनियरिंग विभाग की प्रमुख प्रोफेसर हाइके वालेस को भी काफी खलती थी. लंबे प्रयोगों के बाद उन्होंने प्राकृतिक जीवित कोशिकाओं से प्रयोगशाला में कृत्रिम त्वचा बनाने में सफलता पाई.

वालेस ने डॉयचे वेले को बताया, "तकनीक की कमी की वजह से हम प्रगति नहीं कर पा रहे थे ऐसा नहीं है. सब कुछ हाथ से किया जाता था. इसलिए कुल मिला कर उत्पाद महंगा तो बहुत हो जाता लेकिन उसमें उतनी गुणवत्ता नहीं आई."

प्रो. वालेस का कहना है कि हर काम हाथ से करने का मतलब था कि उत्पाद बनने में बहुत देर लगती. इन हालात के कारण वैज्ञानिकों और उनकी टीम के बायोलॉजिस्ट और इंजीनियरों ने मिल कर फैक्ट्री में उत्पादन की स्केल के लिए ऊतक का एक प्रोटोटाइप बनाया.

                    इस प्रोजेक्ट पर उन्होंने तीन साल काम किया और इसे सफल बनाया. 2011 अप्रैल से टिशू फैक्ट्री डाक टिकट के आकार की त्वचा बना रहे हैं. तेजी से और कम कीमत में. हालांकि त्वचा बनाने की प्रक्रिया पूरी तरह स्वचलित है. यह हर महीने पांच हजार त्वचा के टुकड़े बना सकती है और उनकी गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं.

वालेस कहती हैं, “यह पहला काम है. हम पहले थे जिन्होंने साबित किया कि ऐसा करना संभव है.“

फिलहाल यहां दो तहों वाली त्वचा बनाई जाती है. लेकिन सब कुछ अपेक्षानुसार चलता रहा तो वह 2012 के आखिर तक प्राकृतिक मोटाई वाली त्वचा भी बना सकेंगे. जिसमें एपिडर्मिस, डर्मिस और सबक्यूटिस भी होंगे. तकनीक में और विकास के साथ आने वाले समय में कार्टिलेज जैसे दूसरे ऊतकों को भी कारखाने में बनाया जा सकेगा.

शुरुआत

टिशू इंजीनियरिंग की शुरुआत उन मरीजों के ऊतक और आंतरिक अंगों की कोशिकाओं से नई कोशिकाएं बनाने से हुई जो प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतजार कर रहे थे. यह तकनीक रिजनरेटिव मेडिसिन की दुनिया में अहम है. और यह बायोलॉजी, बायोकेमिस्ट्री, मॉलिक्यूलर बायोलॉजी, चिकित्सा, मटेरियल साइंस और इंजीनियरिंग की प्रक्रियाओं और नतीजे के इस्तेमाल पर आधारित है.

एक ऊतक बनाने के लिए मरीज के शरीर से कोशिकाएं ली जाती हैं. उन्हें अलग किया जाता है और लैब में फिर से बनाया जाता है. अगर कोशिकाओं का अच्छे से इस्तेमाल हो सकता है तो उन्हें एक ऐसे बेस पर रखा जाता है जहां वो बढ़ सकें. ये धीरे धीरे घुल जाती हैं और फिर अपना प्रोटीन खुद बनाती है.

नतीजा होता है बायोआर्टिफिशियल टिशू. जैसे ही यह ठीक ठाक बढ़ जाता है इसे मरीज में प्रत्यारोपित किया जाता है. चूंकि खुद के शरीर से बना हुआ हिस्सा है इसलिए शरीर इसे खारिज नहीं करता. कोशिका सामान्य रूप से शरीर में जा बढ़ने लगती है.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि टिशू इंजीनियरिंग के दौरान सेल प्राकृतिक सेल के ही आकार, प्रकार और गुणों वाले हों, जरूरी है कि वैज्ञानिक हर सेल को समझे. साथ ही बनाते समय यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि कृत्रिम ऊतक को वैसा ही जैविक पर्यावरण मिले जिसमें प्रत्यारोपण किया जाना है.

उदाहरण के लिए हड्डियों के ऊतक को जब बनाया जाता है तो कोशिकाओं को न केवल तय तापमान और नमी में रखा जाता है बल्कि उन्हें अलग अलग मैकेनिकल दबाव भी झेलने होते हैं. जबकि शिरा के ऊतकों को बनाने के लिए कोशिकाओं को हिलते हुए द्रव में रखा जाता है.

फ्रॉनहोफर इंस्टीट्यूट ने इन जटिल प्रक्रियाओं को मनुष्य त्वचा बनाने में इस्तेमाल किया.





Holidays